हमारी मुलाकात हो रही थी एनजीएमए में 'एवरीथिंग इज इनसाइड’ शीर्षक वाली उनकी मध्यवय सिंहावलोकन प्रदर्शनी की पूर्व संध्या पर. 16 जनवरी से 31 मार्च तक चलने वाली यह प्रदर्शनी उनके 50वें जन्मदिन पर आयोजित की जा रही है.
एनजीएमए असल में जयपुर के पूर्व महाराजा के दिल्ली वाले महल में स्थित है. उसी के दो हिस्सों और भव्य लॉन में इस स्वघोषित 'बिहारी’ कलाकार के पिछले 25 वर्षों में बनाए स्कल्पचर, इंस्टॉलेशन, पेंटिंग और वीडियो को रखा गया है.
बिहार के छोटे-से कस्बे में जन्मे और पले-पढ़े सुबोध अब दुनिया के राजदानी शहरों में शान की जिंदगी जीते हैं. आज के दौर का यह सबसे दुस्साहसी भारतीय कलाकार चमकदार स्टेनलेस स्टील के बरतनों से बनाए अपने अनोखे मूर्तिशिल्पों और इंस्टॉलेशंस से ग्लोबल ब्रांड बन गया है.
कमाल की कल्पना शक्ति के धनी सुबोध अपने निजी इतिहास और रोजमर्रा के उपयोग वाली चीजों को काम में लेकर उन्हें सामाजिक बदलाव के प्रतीक के रूप में तब्दील कर देते हैं. इस तरह वे परंपरा और परिवर्तन के बीच एक खुशगवार पल को पकडऩे की कोशिश करते हैं.
बिहार के खगौल से दुनिया के कला नगरों की उनकी यात्रा इक्कीसवीं सदी में भारत की बदलती वास्तविकताओं की मिसाल हो सकती है: उस भारत की मिसाल, जिसका शांत-सरल ग्रामीण जीवन तेजी से उपभोक्तावादी संस्कृति में बदलता जा रहा है, जो चमक-दमक, ग्लैमर और अपराध से अंटा पड़ा है.
यह वही भारत है जिसकी तस्वीर बॉलीवुड में बिहारी डायरेक्टर अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी फिल्मों में दिखती है. सुबोध का पिछले दो दशक का काम बदलाव के दौर से गुजर रहे देश की सांस्कृतिक जटिलताओं को पूरी तरह से खोलकर रख देता है और सियासत को बरक्स ला खड़ा करता है. भारतीय बर्तनों से बनाए गए उनके विशाल इंस्टालेशन दर्शकों में जादुई असर पैदा करते हैं. वे भारत में करीब 30 करोड़ के मध्यवर्ग की तेजी से बढ़ती आकांक्षाओं के प्रतीक भी लगते हैं.
सुबोध जिस भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं, पहले उसके तमाम अराजक विरोधाभासों और आश्चर्यजनक पेचीदगियों को अपने व्यक्तित्व और कला में उतारने की कोशिश करते हैं और फिर उसे अन्य/विकसित/समकालीन दुनिया के साथ समायोजित करते हैं.
दिल्ली में अपनी 'गैलरी एस्पेस’ में सुबोध के प्रारंभिक कैनवस की प्रदर्शनी लगाने वाली रेनु मोदी कहती हैं, ''भारतीय कला जगत में अपने समकालीन और पूर्ववर्ती कलाकारों से सुबोध इस मायने में सबसे अलग हैं कि वे पश्चिम में सिर्फ पूरब वालों और प्राच्यविदों को ही आकर्षित नहीं करते (जो उनकी बेमिसाल कामयाबी से भौंचक हैं), बल्कि मुख्यधारा के म्युजियम, गैलरियों और कला मेलों के आयोजकों में भी दिलचस्पी पैदा कर देते हैं.”
इससे भी बढ़कर, दो दशक पहले सुबोध की अकूत क्षमता को पहचानने वाले हंगरी मूल के अमेरिकी कलाकार और गैलरी के मालिक पीटर नागी बताते हैं, ''सुबोध ने ऐसी कला को आकार देने की कोशिश की है जो अपनी सीमाओं को भी लांघ जाती है. उनकी कला स्थानीय से लेकर ग्लोबल अभिव्यक्तियों तक को मुखरता से पेश करने का काम करती है और निरीह कमजोरों को ताकतवर की भाषा सिखा जा जाती है.”
सांस्कृतिक बहुलतावाद के विचार के प्रति बढ़ते आकर्षण ने समकालीन कला जगत में पहचान की अवधारणा पर भारी बहस छेड़ी है. इस संदर्भ में सुबोध आकांक्षाओं और भावनाओं के प्रचंड आवेग से समय-काल की सीमाओं को तोड़ते हुए रचना कर जाते हैं और दर्शक दांतों तले उंगलियां दबा लेते हैं.
युवावस्था में नुक्कड़ नाटक करने वाले सुबोध में नाटकीयता को लेकर जबरदस्त समझ दिखती है. वे ऐसी रचना को आकार देते हैं जिसमें समूची जीवन-शैली या आस्था तंत्र का अनुभव उतर आता है.
हालांकि 1990 के दशक के मध्य में वे कला के समकालीन परिदृश्य में 'भारत के छोटे शहरों की हकीकत’ को वैश्विक शहरी परिवेश में पेश करने को खासी अहमियत देते थे.
उन्होंने अपने कैनवस, अपने वीडियो और इंस्टॉलेशंस में इसे बखूबी जाहिर भी किया है. उन्हें पता था कि वे कुछ महत्वपूर्ण बात कहने जा रहे हैं इसलिए यह पुख्ता कर लिया कि कोई उसे समझने में चूक न कर बैठे. इस तरह उन्हें फ्रांसीसी आलोचक निकोलस बौरियाद और गैलरी प्रबंधक फैबियां लेकलर्क की नजर में चढऩे में ज्यादा वक्त नहीं लगा.
उन्होंने उनके काम को यूरोप के महत्वपूर्ण स्थानों और संग्रहालयों में रखवाया. इसमें फ्रांसीसी कलेक्टर फ्रांस्वां पिनॉल्ट ने वेनिस में अपने निजी म्युजियम पलाजो ग्रासी में उनके स्टील के बरतनों को तराश कर बनाई गई मानव खोपड़ी को रखा है.
कई अंतरराष्ट्रीय कामयाबियों के बाद अब उनका काम लंदन और ज्युरिख में हौसर और वर्थ, इटली की गैलरी कॉन्टिनुआ, बीजिंग के अरारियो और भारत के नेचर मोर्ते में दिखता है. एनजीएमए की प्रदर्शनी में सुबोध के 1980 के दशक के अंतिम वर्षों के शुरुआती काम से लेकर एकदम नए काम को भी रखा गया है. इन्हें दुनिया भर की गैलरियों से लाया गया है और इनके बीमा तथा परिवहन का खर्च उनके गैलरीवालों ने उठाया है.
हालांकि दुखद और कुछ शर्मनाक पहलू यह भी है कि सुबोध का मशहूर काम भारत में कुछ ही लोगों के पास है. लेकिन इसमें अनुपम पोद्दार जैसे कुछ अपवाद भी हैं, जिन्होंने उनका काम काफी पहले खरीद लिया था. और अब किरण नाडर ने हाल में नई दिल्ली में अपने किरण नाडर म्युजियम ऑफ आर्ट के लिए उनके 'लाइन ऑफ कंट्रोल’ को खरीदा है.
अपनी शीर्ष कलात्मक अनुभूति और सफलता के इस दौर में सुबोध रचनात्मक तनाव से भरे हुए हैं. वे कहते हैं, ''यह मेरा देश है और एनजीएमए में यह विशाल प्रदर्शनी मुझे गौरव का एहसास कराती है. दुनिया में और कहीं भी मैंने किसी एक स्थान पर अपने इतने काम की प्रदर्शनी नहीं लगाई. यह बहुत बड़ी जगह है.
तीन हफ्ते तो मुझे अपने काम को सजाने, रखने में ही लग गए. कड़ी मेहनत करनी पड़ी लेकिन जब आपका कुछ करने में दिल लगे तो संघर्ष रोमांस में तब्दील हो जाता है.”
हम जब गैलरी का चक्कर पूरा कर रहे थे तब भी सैकड़ों टेक्नीशियन, वेल्डर, कारपेंटर और उनके सहयोगी काम में जुटे हुए थे. स्टेनलेस स्टील के बोधि वृक्ष पर अस्त होते सूरज की किरणें पड़ रही थीं. मेरी कार गेट से बाहर निकलकर इंडिया गेट के सर्कल के पास पहुंची तो मैंने देखा कि स्कूल के लड़कों की एक टोली अपने सेलफोन के साथ एनजीएमए के गार्डन की रेलिंग से ताक-झांक कर रही है.
वे जाड़े के सूरज की आखिरी किरणों के साथ सुबोध के बोधि वृक्ष की तस्वीर अपने सेलफोन में उतार रहे थे. यानी उनके बोधि वृक्ष के नीचे परिवारों के जमावड़े की सुबोध की कामना साकार होती लग रही है.