सुनील कुमार
पत्रकार एवं कला शोधार्थी
चाहे कला हो या संस्कृति, बिहार का अतीत जितना समृद्धशाली है, वर्तमान उतना ही उज्ज्वल।
पाटलिपुत्र पूर्व काल में कला संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था जिसने न केवल समकालिक दूसरे कला-संस्कृतियों और केंद्रों को प्रभावित किया, बल्कि दक्षिण एशियाई देशों में पाटलिपुत्र का प्रभाव आज भी स्पष्ट दिखता है। यह प्रदेश विश्व के दो महानतम साम्राज्यों, मौर्य तथा गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष और अवसान का साक्षी रहा है। सम्राट अशोक का राजप्रसाद वास्तुकला का अनूठा उदाहरण था, जिसकी विश्व प्रसिद्धि थी। गुप्तकाल कला और साहित्य की दृष्टि से स्वर्णकाल माना जाता है। शिल्पियों तथा वास्तुकारों की इस समय काफी महत्ता थी। इन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त था। अजंता के गुहा मंदिरों में मिली इस काल की चित्रकारी अत्यंत रमणीय है और प्राचीन भारतवर्ष की चित्रकला के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है। चाहे पाल काल के मूर्ति शिल्प हों या वाकाटक शासकों के काल की चित्रकला, सभी समकालीन दूसरी कला संस्कृतियों से आगे की दिखती है।
महान मुगल साम्राज्य में भी चित्रकला को दरबारी
संरक्षण प्राप्त हुआ। अकबरनामा तथा एयार-ए-दानिश में चित्रकला की सुंदर रचनाएं
मिलती हैं। जहांगीर चित्रकला मर्मज्ञ था। तत्कालीन सबसे बड़े चित्रकार मंसूर इनके
दरबार में थे, जिन्हें नाजिर-उल-असर की उपाधि से नवाज़ा गया
था। हमज़ानामा पर की गयी चित्रकारी से मुगल-कलम की शुरुआत हुई। मुगलोत्तर काल में
ख़़स्ताहाल अर्थव्यवस्था के कारण चित्रकारों एवं शिल्पियों का पलायन मिलता है। इन
कलाकारों ने अलग-अलग प्रदेशों में जाकर चित्रकला एवं शिल्पकला की विभिन्न शैलियों
को जन्म दिया। पटना हाथी दांत पर होनेवाली चित्रकारी के लिए विख्यात था। लाल चंद
और गोपाल चंद इसके दो प्रसिद्ध चित्रकार थे, जिन्हें बनारस के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने अपने यहां जगह दी। पटना में
इसके महारथी थे, दल्लूलाल। पटना शैली की शबीहें तैयार करने में
इनका उल्लेखनीय योगदान है।
पटना कलम या इंडो ब्रिटिश शैली का विकास भारत की
लघु चित्रकला शैली और ब्रिटिश शैली के संयोग से अंग्रेजों के संरक्षण में हुआ, जिसमें व्यक्ति चित्रों की प्रधानता थी और ये चित्र आम जीवन
की त्रासदियों के बीच से उभरते थे। श्यामलानंद तथा राध्¨मोहन प्रसाद इसी शैली के कलाकार थे। राधेमोहन प्रसाद ने
पटना आर्ट कॉलेज की नींव रखी थी, जो लम्बे समय से
कला गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र है। ईश्वरी प्रसाद वर्मा को पटना कलम शैली का
अंतिम चित्रकार माना जाता है।
नंदलाल बोस । विष पीते हुए शिव. |
बीसवीं शताब्दी में आधुनिक चित्रकला के दो
ख्याति प्राप्त कलाकारों का संबंध बिहार से रहा है। हालांकि इन्हें बंगाल स्कूल का
माना जाता है। ये हैं - नंदलाल बोस तथा शंखो चौधरी। मुंगेर में जन्मे नंदलाल को
इंडियन सोसायटी ऑफ ओरिएन्टल आटर्स की पहली छात्रवृत्ति मिली थी। इनकी कलाकृतियों
को भारतीय संवेदनाओं का प्रतीक कहा जाता है, जिन्हें अपनी रचनाओं के मूल तत्व लोक जीवन, संगीत, साहित्य आदि से मिलते थे। रेखांकन पर इनकी
जबरदस्त पकड़ थी। चित्रकला की अजंता शैली और भारतीय शैली के मेल से बोस ने अपनी
नयी तकनीक विकसित की थी। शंखो चौधरी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विख्यात मूर्तिकार
हैं। मूर्तिकला में आधुनिकता का प्रयोग सर्वप्रथम इनकी ही गूढ़ एवं सरल शिल्पों
में मिलता है। इसी कारण इन्हें मूर्तिकला के आदिगुरू का सम्मान दिया गया है।
पटना के अगमकुआं स्थित बुद्ध की विशाल प्रतिमा
बनानेवाले यदुनाथ बैनर्जी थे तो कोलकाता के, लेकिन बिहार की मूर्तिकला में इनका योगदान महत्वपूर्ण है। ईश्वर चंद्र गुप्ता
पहले मूर्तिकार हैं, जिन्हें मूर्तिकला में पहला राष्ट्रीय पुरस्कार
मिला और ब्रिटिश फेलोशिप भी मिला। ब्रिटेन में इन्होंने टेराकोटा में नवीन आयामों
को ढूंढा। उपेन्द्र महारथी कला संस्थान (पाटलिपुत्र) के संस्थापक उपेन्द्र महारथी
की कला में चित्रकला की अजंता शैली और बंगाल शैली के तत्व मिलते हैं जिन्हें विषय
प्राप्त होते हैं जातक कथाओं और गांधीवादी जीवन दर्शनों से।
आधुनिक कला में बिहार के अनेक कलाकारों ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर अपनी पहचान बनायी है। इनमें विरेश्वर भट्टाचार्य, श्याम शर्मा, अनिल
बिहारी रजत घोष और भी कई नाम शामिल हैं। विरेश्वर भट्टाचार्य की आतंकवादी सीरीज़
की कृतियां प्रसिद्ध हैं, जिनके लिए उन्हें ललित कला अकादमी पुरस्कार मिला
था। अब तक इन्होंने अतियथार्थवादी शैली में चित्र रचनाएं की हैं। श्याम शर्मा छापा
कला में देश के शीर्षस्थ कलाकारों में पहले स्थान पर हैं। वुड कट प्रिंट में इन्हें
विशेषज्ञता हासिल है। इनके छापों में अमूर्तन हावी दिखता है, लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें आकृतिमूलकता दिखायी देती है।
छापाकला में लोककला का इन्होंने सुन्दर समागम कराया है। अनिल बिहारी छापा कला की
रंगीन लिथोग्राफी में काम काम करने वाले जाने-माने कलाकार हैं। रजत घोष मूर्तिशिल्पियों
में एक चर्चित कलाकार हैं, जिन्होंने टेराकोटा में विविध प्रयोग किये हैं,
खासतौर पर लोककला शैली और आधुनिक कला शैली के मिश्रण से।
नंदलाल बोस । यम और नचिकेता |
अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में बिहार के
कलाकारों में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने की प्रवृति आम तौर पर
मिलती है। इन लोगों ने क्षेत्रीय सीमाओं को अस्वीकार करके खुले मंच पर देश के अन्य
क्षेत्र के कलाकारों के सामने चुनौती उत्पन्न की। अशोक तिवारी इनमें पहले थे। अन्य
कलाकारों में धर्मेन्द्र सिंह, संजीव सिन्हा, शांभवी और सुबोध गुप्ता प्रमुख हैं। संजीव सिन्हा को हंड्रेड
इयर्स ऑफ मॉडर्न आर्ट्स में जगह दी गई थी। आजकल ये किच कला में प्रयोग कर रहे है। शांभवी
बिहार की महिला कलाकारों में सबसे पहले और सबसे तेजी से उभरीं। शांभवी ने काले
रंगों में आत्मबिंबों को कैनवस पर जगह दी। उनकी कलाकृतियों में प्रकृति और भौतिक
समाज के प्रतीकों को उसकी वेदनाओं के साथ अभिव्यक्त होते देखा जा सकता है। देश में
आधुानिक कला के बीस शीर्षस्थ कलाकारों में इनकी भागेदारी है। सुबोध गुप्ता ने विडियो आर्ट एवं इंस्टालेशन के जरिए अंतर्राष्ट्रीय कला जगत
में अपनी उपस्थिति प्रमुखता से दर्ज करायी। नरेन्द्र पाल के चित्रों में लोक कला
और ग्रामीण जनजीवन के तत्वों को आधुनिक स्वरूप में देखा जा सकता है। अजीत दुबे
छापा कला के इचिंग तथा लिथोग्राफी में सक्रिय हैं। इन्होंने कर्नाटक की लोक कला से
प्रभाव ग्रहण किया है।
आनंदी प्रसाद बादल, सिकन्दर हुसैन, अनिल सिन्हा, मिलन दास, विपिन कुमार, अशोक कुमार, राज किशोर राय, श्रीकांत पाण्डेय तथा अन्य कलाकार बिहार से
जुड़े होने के बावजूद बिहार से बाहर अभिव्यक्ति के विभिनन माध्यमों में सक्रिय
हैं। इस क्रम में हाल ही में रविन्द्र भवन में आयोजित रिद्म द्वारा आयोजित प्रदर्शनी
अनशेकेल्ड स्पिरिट्स उल्लेखनीय है, जिसमें चित्रकला, मूर्तिकला, फोटोग्राफी तथा पारंपरिक कलाओं के सभी महत्वपूर्ण कलाकारों के चित्र एकसाथ
देखने को मिले। इसमें नंदलाल बोस एवं शंखो चैधरी जैसे पुरानी पीढ़ी के कलाकारों से
लेकर शांभवी और संजीव सिन्हा जैसे युवा कलाकार एक साथ मंच पर दिखे। इसमें युवा
कलाकार विभिन्न माध्यमों में नये प्रयोग करते दिखे, जो गूढ़ विचारों के समावेश तथा प्रस्तुतिकरण के संभाव्य माध्यमों के स्तर पर
ज्यादा दिखता है। रविन्द्र दास की पेंटिंग फर पीस में बुद्ध को घातक हथियारों से
घिरा दिखना या अमरेश के शिल्प में सिंहासन का गोलियों से घिरे होने को बिहार के
वर्तमान राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था से जोड़कर देखा जा सकता है। मंजू प्रसाद
सामाजिक विडम्बनाओं की चितेरी हैं, लेकिन इनके चित्रों में रंग ज्यादा प्रमुखता से उभरता है। संजय ओझा तथा उमेश ने
अभिव्यक्ति के नये माध्यमों एक्स-रे शीट तथा माचिस की तिलियों से रोमांटिसिज़्म
तथा प्रकृति को अभिव्यक्त किया था। राजीव रंजन के फलकों पर परंपरागत नाट्यविधाओं
के तत्वों को जगह मिली है, लेकिन इसके साथ अभिव्यक्ति के अमूर्त रूपाकारों
का सहज मेल भी दिखता है।
अमरेश, अरूण पंडित, शरद कुमार, युवराज सिंह आज के मूर्तिकार हैं, जिन्होंने वायवीय जगत से लेकर अंतस्थ संसार को अपनी कला में जगह प्रदान की है।
युवराज के शिल्प में तकनीकी दक्षता और विचारों की सारगर्भिता एक साथ दिखती है, तो शरद की पेपरमेंसी की कलाकृतियों में परंपरागत कला के
तत्व एवं पारंपरिक धार्मिकता का पुट भी मिलता है।
भू-दृष्य तथा भारत का ग्राम समाज सदा से भारतीय
चित्रकला का विशय रहा है। सदरे अलम, नरेन्द्र पाल, संजू दास तथा अन्य कलाकारों ने भू-दृष्यों तथा
ग्रामीण जीवन के रस को सफलता पूर्वक रूपायित कर रहे हैं। सद्रे अलम के यहां
भू-दृष्य जहां प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है, तो संजू दास के चित्रों में ग्राम्य दैनानुदिन क्रियाकलापों का ठेठ चित्रण
मिलता है। जिनके आकृतियों को मधुबनी लोककला से स्वरूप प्राप्त होता है।
एक बात तो स्पष्ट है कि एक समय में बंगाल स्कूल
कला केन्द्र के रूप में चर्चित रहा और फिर बड़ौदा। अब बिहार के कलाकार चर्चा में
हैं। खासकर पिछले दो दशकों से मौलिकता तथा सहज संप्रेशषणीयता यहां की कलाकृतियों
की विषेशता है। यह हर विधा में दिखती है। भले ही इस प्रेरणा लोक कला, ग्राम्य समाज, समसामयिक, सामाजार्थिक-राजनीतिक परिस्थितियां या वाह्य जगत
और अंतस्थ बिम्बों से मिलती हो।