एम.एफ. हुसैन की एक कलाकृति |
विमर्श/
समकालीन कला
.
सुमन सिंह कलाकार एवं कला समीक्षक |
अब बात अगर आधुनिक कला की करें
तो राजा रवि वर्मा से लेकर हैवेल और अवनीन्द्रनाथ टैगोर के प्रयासों
से कला का जो रूप हमारे सामने आया, भारतीय
आधुनिक कला वहीं से चिन्हित होती
है। जो बाद के वर्षों में बंगाल स्कूल के जन्म के साथ-साथ अमृता शेरगिल के भारत
आगमन तक चलता रहा। 1940 के दशक
में कलकत्ता प्रोग्रेसिव ग्रुप, श्ल्पिी
चक्र-दिल्ली एवं प्रोग्रेसिव ग्रुप बंबई ने भारतीय कला आंदोलन को पश्चिमोन्मुख
बनाने की दिशा में पहल शुरू की। हालांकि इसे एक तरफ जहां भारतीय कला का पश्चिम से
संवाद की शुरुआत माना गया तो दूसरी तरफ इसे पश्चिम के अनुकरण के रूप में भी तब
देखा गया। विभिन्न अकादमियों की स्थापना के क्रम में 1954 में
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पहल पर ललित कला अकादमी की स्थापना हुई, जिसका मुख्य
उद्देश्य भारतीय कला के विकास के लिए वातावरण तैयार करना एवं देश के अलग-अलग
प्रांतों या शहरों में चल रहे कला आंदोलन को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करना था।
हालांकि इससे पूर्व 1950 में
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की स्थापना विदेश मंत्रालय के अंतर्गत हो चुकी थी।
इसी क्रम में राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय की स्थापना ने इस दौर में भारतीय
समकालीन कला आंदोलन को मजबूती प्रदान की।
अब बात फिर से लौटकर आती है कि
समकालीन कला किसे माना जाए। इसको लेकर कई बार भ्रम की स्थिति हमारे सामने आ जाती
है। यहां तक कि कलाकारों, कला
समीक्षकों एवं कला इतिहासकारों के बीच भी इसको लेकर मतानेकता सामने आती रहती है।
कुछ लोग बंगाल स्कूल तो कुछ इसे प्रोग्रेसिव कला आंदोलन से जोड़कर देखते हैं।
दूसरी तरफ 1857 से
जोड़कर भी इसे देखा जाता है, क्योंकि
भारतीय इतिहास में इस कालखंड का एक अति विशिष्ट स्थान है। राष्ट्रीय आधुनिक कला
संग्रहालय में जो कृतियां संग्रहित की गई हैं, उसके निर्धारण में इसी दौर को महत्व दिया गया। यानि इससे
पूर्व की रचनाओं को राष्ट्रीय संग्रहालय में संग्रहित किया जाता है एवं उसके बाद
की कृतियां आधुनिक कला संग्रहालय में संग्रहित की जाने योग्य मानी जाती है। इन
सबसे इतर एक धारणा या मान्य यह है कि जो कला हमारे जीवनकाल में रची जा रही है, हमारे लिए वही समकालीन
है। इस आधार पर 1960 से लेकर 1990 तक के
अलग-अलग वर्षों से इसे माना जा सकता है।
बंगाल स्कूल से लेकर आज तक की
समकालीन कला यात्रा के क्रम में आए बदलावों की हम बात करें तो पिछले दो
दशकों में जो सबसे बड़ा बदलाव माना जा सकता है वह है कला में व्यक्तिगत पहचान का
महत्वपूर्ण होना। इससे पूर्व चित्र रचना की शैलीयों में कलाकार पर उस क्षेत्र या
कला संस्थान की छाप साफ तौर पर देखी जा सकती थी, जिस क्षेत्र या संस्थान से वह आता था। आज के दौर में बात हम
चाहे विषयों की चयन की करें या माध्यम के चयन की, कलाकार का फलक पहले की अपेक्षा काफी व्यापक हो गया है। पहले
जहां कुछ महानगरों और कला महाविद्यालय विशेष का दबदबा
इस क्षेत्र में साफ दिखता था। वहीं आज इस स्थिति में इतना बदलाव अवश्य आया है कि
अपेक्षाकृत छोटे और अनाम शहरों, कस्बों से आए
युवाओं ने राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान मुकम्मल की है।
दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, बंगलौर और मद्रास की तर्ज पर लखनऊ, पटना जैसे शहरों
में भी प्राईवेट गैलरी खुलने लगी है। साथ ही छोटे शहरों में भी कलाकृतियों के
खरीददार सामने आने लगे हैं। राज्य की कला अकादमियों के साथ-साथ कॉरपोरेट सेक्टर के
माध्यम से कला आयोजनों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। युनाइटेड आर्ट फेयर, इंडिया आर्ट समिट, कोच्चि बिनाले जैसे
आयोजनों ने कला गतिविधियों को व्यापकता दी है। यही कारण है कि 60-70 के दशक
में हमारे यहां स्वतंत्र कलाकार के रूप में कैरियर का चयन जितना जोखिम भरा माना
जाता था, आज उसके
विपरीत युवा कलाकारों की प्राथमिकता में यह शामिल हो चुका है। आज कला में बाजार एक
जरूरी तत्व के रूप में हमारे सामने है।
अब अगर हम बात कला बाजार की
करें तो भारतीय संदर्भ में यह काफी नया है क्योंकि हमारी कला परंपरा राज्याश्रय या
लोक जीवन में फली-फूली कला परंपरा की रही है। राजा, नवाब, बादशाह, जागीरदार और धनिक वर्ग इसके संरक्षक रहे
हैं। यहां तक कि किसी स्थान विशेष पर संरक्षण के अभाव में कलाकार वहां से पलायन कर
किसी दूसरे राज्य या क्षेत्र में चले जाते थे। पटना शैली या कंपनी शैली का जन्म
हमारे यहां इसी क्रम में हुआ, जब
औरंगजेब के काल में मुगल साम्राज्य से निष्कासित कलाकार राज्याश्रय की तलाश में
मुर्शिदाबाद जाने के क्रम में पटना जाकर बस गए। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर
कालीघाट शैली के कलाकारों का खरीदार से पहला संबंध दिखता है। औपनिवेशिक काल में जब
कलकत्ता ब्रितानियों की राजधानी के तौर पर विकसित हो रहा था, उस दौर में
पारंपरिक कलाकारों का आगमन कालीघाट के आसपास होना प्रारंभ हुआ। जहां से प्रसिद्ध कालीघाट पट या
चित्रण की परंपरा प्रारंभ हुई। इन कलाकारों की कृतियों के खरीदार के रूप में बंगाल
के सामंत और नवधनाढ्य सामने आए, कला और बाजार के सीधे रिश्ते की यह
शुरुआत थी।
अब अगर बात आज की स्थिति की
करें तो आज बाजार कला में पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। 1991 के बाद
जिस नई आर्थिक नीतियों को हमारे देश में अपनाया गया, उसने भारत को एक बड़े उपभोक्ता बाजार के साथ-साथ भविष्य की
आर्थिक शक्ति के रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। इस प्रक्रिया ने एक
नया वर्ग तैयार किया जिसे आज हम 'द ग्रेट
इंडियन मिड्ल क्लास" के रूप में जानते हैं। इस वर्ग की जीवन शैली में आए
बदलाव और क्रय शक्ति में इजाफे ने
खरीदारों एवं कला के कद्रदानों का एक नया वर्ग तैयार किया। फलत: कलाकृतियों की
खरीद-बिक्री में ही सिर्फ इजाफा नहीं हुआ, कृतियों
को ऊंचा से ऊंचा मूल्य भी मिलने लगा। सदेबी जैसी संस्थाओं की नीलामी में भारतीय
कलाकारों की कृतियों को जो कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में मिलने लगी, उसके बारे में आज
से दो दशक पहले तक अनुमान लगाना भी मुश्किल था।
इससे पहले कला जगत का सबसे बड़ा
खरीदार या तो दिल्ली, मुंबई
के कुछ व्यापारिक घराने थे या सरकारी अकादमी या संस्थान। इन बदली परिस्थितियों ने
जहां एक तरफ समकालीन कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वहीं दूसरी तरफ यह
देखते-देखते नीति निर्धारक भी बन गया। यानी कई बार ऐसा लगने लगता है कि रचनाओं के
विषय माध्यम और शैली के चयन में कलाकार से
ज्यादा बाजार की भूमिका हावी होने लगी। कला प्रदर्शनियों की सफलता या असफलता का
आकलन कृतियों की बिक्री से की जाने लगी। निजी दीर्घाओं के संचालकों में एक बड़ा
वर्ग ऐसा है जिसकी कला की समझ काफी सतही है। कई बार इंटीरियर डिजाइनर या डेकोरेटर
कलाकार को अपनी पसंद या सुविधानुसार रचनाओं के निर्माण का दवाब डालने लगते हैं।
कुछ ऐसे भी उदारण हमारे सामने आए जब अच्छी सुरूचिपूर्ण रूचि वाली दीर्घाएं बंद हो
गई और सिर्फ सजावटी कृतियों का
व्यापार करने वाली दीर्घाएं फलती-फूलती रही। देश की चर्चित गैलरी सी.सी.ए (सेन्टर
फॉर कंटेपररी आर्ट) और बोधि गैलरी के बंद होने जैसी
घटना भी इसी तरह की घटना है। बाजार के दवाब में रचनाकार की निजी स्वतंत्रता
प्रभावित होने लगे तो इस पर विचार करना आवश्यक लगने लगता है कि कला और बाजार का कौन सा स्वरूप समकालीन
कला के विकास में बाधक या उपयोगी है।
दूसरी तरफ समाचार माध्यमों, पत्र-पत्रिकाओं में
साहित्य, कला एवं
संस्कृति के लिए जगह जिस तेजी से कम होता चला गया है वह भी गंभीर चिंता का
विषय है। हालांकि इसी दौर में कला-पत्रिकाओं की बाढ़ सी भी आ गई है लेकिन गौर करने
पर हम पाते हैं कि इनमें से अधिकांश किसी निजी दीर्घा के द्वारा प्रकाशित किए जा
रहे हैं, जिसका
अंतिम उद्देश्य अपनी दीर्घा को अधिक से अधिक मुनाफा दिलाने का ही है। इससे अधिक
चिंता का विषय यह भी है कि ललित कला अकादमी और क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र, जिनकी भूमिका
सर्वाधिक महत्वपूर्ण होनी चाहिए, उतनी ही
तेजी से अप्रासंगिक होती जा रही है। अगर ललित कला अकादमी या राज्य की कला
अकादमियों के पास कला दीर्घा और आर्टिस्ट स्टुडियो जैसी सुविधा
नहीं होती तो शायद ही कोई सक्रिय कलाकार वहां झांकना भी पसंद करता। अभी ही यह हालत
है कि अकादमी की दीर्घा कलाकारों की पहली पसंद नहीं है। दिल्ली में इंडिया हैबिटेट
या श्रीधराणी जैसी दीर्घाएं अपेक्षाकृत महंगे होने के बावजूद कलाकारों की पहली
पसंद मानी जाती है।
इन सबके बीच कलाकारों के बीच
तेजी से बढ़ती संवादहीनता भी एक चुनौती के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। बदलती
जीवन शैली की भागदौड़ और आपाधापी में हमारे पास समय की
कमी जैसी जो स्थितियां आ रही हैं, उसके
कारण चाहकर भी हम ऐसे मौके बहुत कम निकाल पाते हैं जब आपस में मिल बैठ सकें। एक
दौर था जब दिल्ली के कलाकार और संस्कृतिकर्मी आसानी से एक
दूसरे से मंडी हाउस में मिल लिया करते थे। लेकिन तेजी से बढ़ते एनसीआर ने दूरियों
का ऐसा यथार्थ हमारे सामने ला दिया जिससे पार पा पाना आसान नहीं रह गया है। अत: इस
परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाए तो एक बात स्पष्ट होती है कि आज जहां एक तरफ
कलाकारों के लिए माहौल पहले की अपेक्षा बेहतर हुआ है ,वहीं दूसरी तरफ
चुनौतियां भी उसी गुणात्मकता में बढ़ी हैं।