अजित राय
वरिष्ठ कला
पत्रकार एंव समीक्षक
"बुंदेलखंड में अकाल के कारण कर्ज न चुका पाने पर किसानों की आत्महत्या की सच्ची कहानियों पर आधारित "कड़वी हवा" संजय मिश्रा के हैरतअंगेज अभिनय के लिए यादगार रहेगी जबकि "मुक्ति भवन" बनारस में आकर मोक्ष की चाहत में मरने की इच्छा रखनेवाले बूढ़े लोगों की असाधारण कहानियां है।"
अकाल के कारण फसल नष्ट होने पर कर्ज न चुका पाने और इकलौते बेटे के आत्महत्या करने के बाद पूरे परिवार को सम्भलने का जिम्मा अंधे और बूढ़े किसान के कंधों पर है। धौलपुर (राजस्थान) से सटे चंबल के बीहड़ों के गांव में अंधे किसान और लोन एजंट के जटिल रिश्तों के बीच कहानी में कई छोटे छोटे मोड़ है। किसानों के खून चूसनेवाला लोन एजंट भी कोई खलनायक नही है। वह परिस्थतियों से मजबूर है। अंत में जब वह टेलिविजन पर देखता है कि ओडीशा में आए समुद्री तूफान में उसका गांव तबाह हो गया, उसका परिवार खत्म हो गया, तो फूट फूटकर रो रहा है। तब उसे महसूस होता है किसी अपने की अकाल मृत्यु का दुख क्या होता है।
फिल्म में कैमरा बार-बार
चंबल के बीहड़ों को ऐसे दिखाता है जैसे उस इलाके के लोगों का बीहड़ जीवन है। संजय
मिश्रा इतने कुशल अभिनेता है कि उन्हे अलग से अभिनय करने की जरूरत ही नही पड़ती।
उनका एक-एक अंदाज बहुत कुछ कह जाता है।
आदिल हुसैन और ललित बहल की
मुख्य भूमिकावाली "मुक्ति भवन" बनारस में आकर मोक्ष की चाहत में मरने की
इच्छा रखनेवाले बूढ़े लोगों की असाधारण कहानियां है। एक दिन अचानक एक रिटायर
शिक्षक दयानंद (ललित बहल) को 77 वें साल में इलहाम होता है कि
उसका अंतिम समय आ गया है। वह अपने इकलौते बेटे (राजीव) से कहता है कि उसे बनारस ले
चले और मुक्ति भवन में भर्ती करा दे।
बेटे की समस्या है कि वह नौकरी
की व्यस्तताओं में कैसे समय निकाले। पिता की जिद के सामने पूरे परिवार को झुकना
पड़ता है। बनारस के मुक्ति भवन का अपना संसार है। वहां के सभी बाशिंदे मृत्यु का
इंतजार में जिंदगी जी रहे है। दयानंद की दोस्ती वहां एक ऐसी महिला (75 वर्ष) विमला से होती है जो अठारह साल से मृत्यु का इंतजार कर
रही है।
फिल्म यहां से पिता और पुत्र के आपसी रिश्तों की अंतरंग और जटिल दुनिया मे जाती है जहां दोनों को अतीत की स्मृतियों का सामना करना है। आदिल हुसैन और ललित बहल के जबरदस्त अभिनय के साथ माइकेल मैक स्वीनी और डेविड हुवीलर की विलक्षण सिनेमैटोग्राफी फिल्म को नई ऊंचाइयों तक ले जाती है। दरअसल मृत्यु से घिरे माहौल में शुभाशिष भुटियानी जिंदगी की छवियों को दिखाते है।
दयानंद कुमार की अंतिम इच्छा है
कि उनकी शवयात्रा धूम धाम से निकाली जाय और कोई शोक न मनाया जाय। यह भी कितना
मार्मिक है कि एक जिद्दी पिता जिसने कभी भी अपने इकलौते बेटे राजीव पर ध्यान नही
दिया,
लेकिन अपनी पोती सुनीता को हमेशा प्रोत्साहित करता है कि जो मन कहे वहीं करना
चाहिए। इस फिल्म को पिछले साल वेनिस अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह मे यूनेस्को गांधी
मेडल पुरस्कार मिल चुका है ।
भारत के 48 वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह, गोवा में दिखाई गई हिंदी की ये दोनों फिल्मों को जबरदस्त सफलता मिल
रही है। संजय मिश्रा, आदिल हुसैन और ललित बहल के
अभिनय की खूब चर्चा है। ये दोनों फिल्में माननीय रिश्तों की नई सिनेमाई छवियां सामने लाती है। कम से कम संवाद में अधिक से अधिक बात कहने की कोशिश सीधे दर्शकों
के दिल तक पहुंचती है।
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