मनीष पुष्कले
उन चित्रकारों में गिने जाते हैं जिनके चित्रों में जीवन के प्रति गहरी
प्रतिबद्धता के साथ-साथ एक नितांत मौलिक सोच के दर्शन भी होते हैं। मनीष पुष्कले
के साथ कुलदीप कुमार की बातचीत।
समकालीन
भारतीय चित्रकला के क्षेत्र में सक्रिय युवा चित्रकारों में मनीष पुष्कले ने
विधिवत शिक्षा और प्रशिक्षण के अभाव को बहुत कौशल के साथ अपनी खूबी में बदल दिया
है। आज मनीष पुष्कले उन चित्रकारों में गिने जाते हैं जिनके चित्रों में जीवन के
प्रति गहरी प्रतिबद्धता के साथ-साथ एक नितांत मौलिक सोच के दर्शन भी होते हैं।
मनीष ने अपनी निजी चित्रभाषा विकसित की है और इसीलिए अमूर्तन की ओर झुकी उनकी शैली
सबसे अलग लगती है।
अब दो दशक से
वे दिल्ली में रहते हैं और बेहद व्यस्त चित्रकार हैं। उनकी साहित्य में भी गहरी
रुचि है और उन्होंने 2007 में प्रसिद्ध कथाकार-नाटककार कृष्ण बलदेव वैद के नाम
से वैद सम्मान स्थापित किया था जिसे प्राप्त करने वालों में कवि-कथाकार उदय प्रकाश, पर्यावरणविद
गद्यकार अनुपम मिश्रा और कथाकार गीतांजलिश्री आदि शामिल हैं।
मनीष, अपनी कला यात्रा के बारे में बताइये। कहां से और कैसे शुरू हुई?
मैं भोपाल का
हूं जहां 1973 में मेरा जन्म हुआ। आज से बीस बरस पहले मैं दिल्ली आ गया।
तय कर लिया था कि चित्रकारी करनी है, तो लगा कि दिल्ली उसके लिए उत्तम जगह होगी। भोपाल में
भारत भवन होने के कारण कुछ ऐसा माहौल मिला कि रेखाओं और रंगों के माध्यम से अपनी
दिशा तलाशने की शुरुआत हो गई। इस तलाश में मैं जो बन गया उसे चित्रकार कहते हैं।
मेरी शिक्षा
विज्ञान के विषयों में हुई, किसी कला महाविद्यालय में मैंने प्रशिक्षण नहीं लिया।
लेकिन अगर भारत भवन नाम की संस्था भोपाल में न होती, तो शायद मैं
चित्रकार न बन पाता। मेरे दस बरस का होते-होते दो बड़ी घटनाएं हो चुकी थीं। एक तो
भोपाल गैस त्रासदी और दूसरी भारत भवन का बनना। यानि एक ओर तो जीवन का उत्साह भारत
भवन के रूप में और दूसरी ओर मृत्यु का संहार गैस त्रासदी के रूप में।
मेरा परिवार
मध्यम दर्जे का जैन व्यापारी परिवार है जिसमें कला का कोई माहौल नहीं है। मैं
स्कूल से भाग कर भारत भवन की कला दीर्घा में लगे चित्र देखा करता था। वहां मैंने
रजा से लेकर स्वामीनाथन और गायतोंडे से लेकर अर्पिता सिंह और विवान सुंदरम तक के
चित्र देखे और पाया कि हरेक का अपना मुहावरा है, शैली है, काम करने का
तरीका है। सवाल उठा कि मेरा क्या तरीका है? मैं सिर्फ 16-17 साल का था, और किसी भी
कलाकार के जीवन में यह सवाल जितनी जल्दी उठ खड़ा हो, उतना ही अच्छा है। पानी उधर
ही बहता है जिधर ढाल हो, और मुझे तो हर तरफ ढाल ही ढाल दिखता था और मैं बहता
जाता था। बहते-बहते मैं दिल्ली आ गया।
दिल्ली किस
तरह आना हुआ ?
मंजीत बावा
भारत भवन में रूपांकर के निदेशक बनकर आ चुके थे। स्वामीनाथन की तरह ही वे भी मुझे
प्रोत्साहित करते रहते थे। उन्हीं दिनों प्रसिद्ध आर्ट रेस्टोरर रूपिका चावला
भोपाल आयीं। उन्होंने सुझाव दिया कि मैं राष्ट्रीय संग्रहालय में आर्ट
रेस्टोरेशन-कंजर्वेशन का एमए का कोर्स करूं क्योंकि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था।
जब मैंने अपने पिता से कहा कि मैं रेस्टोरेशन का कोर्स करने दिल्ली जाना चाहता हूं
तो वे बोले कि देखो, तुम किसी भी और चीज के लिए पैसे ले लो, पर
रेस्टोरेन्ट खोलने के लिए मैं पैसे नहीं दूंगा!
दिल्ली आने
के पीछे मंजीत बावा का धक्का ही सबसे बड़ा कारण था। यह कोर्स करने के कारण मुझमें
मैटीरियल की समझ और सेंसिबिलिटी आ गई। इस दौरान कई जगह पुरातात्विक उत्खनन देखने
का मौका मिला। तो मुझमें भी कैनवस पर रंग लगाकर फिर उसकी सतह को उधेड़ने यानि एक
तरह से रंगों का उत्खनन करने का शौक पैदा हो गया जिसने मेरी कला को एक नई दिशा दी।
सामग्री में तो मैं प्रशिक्षित हूं, लेकिन कला में दीक्षित हूं और दीक्षा देने वालों में
स्वामीनाथन, मंजीत बावा, रजा साहब, अशोक वाजपेयी के अलावा और
भी न जाने कितने गुरु शामिल हैं। सौभाग्य से अभी कला गूगल सर्च करके पैदा नहीं की
जा सकती।
वर्तमान
परिदृश्य के बारे में क्या सोचते हैं?
मुझे लगता है
हम लोग देखना भूल गए हैं। हम एक अमूर्त पेंटिंग के सामने खड़े होते हैं और तत्काल
सवाल करते हैं कि इसका मतलब क्या है? जिस तरह हम सुगंध और दुर्गंध का भेद किसी के बिना
बताए कर लेते हैं, शोर और संगीत में फर्क कर लेते हैं, कोई गलत नीयत
से छूए तो हमें तत्काल पता चल जाता है, उसी तरह हम देख कर कला और
अ-कला का भेद क्यों नहीं कर पाते? शायद हमारे देखने का ढंग दूषित हो चुका है, वह भी एक ऐसे
समय में जब दिखाने के लिए एक पूरा विशाल बाजार सामने खड़ा है।
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